Friday, May 22, 2009

प्रीता जी पहेली बार गुरूजी से मिले - पढिये उनका अनुभव

गुरूजी और मै
- प्रीता व्यास

एक बहुत खूबसूरत सा शब्द है -"इत्तिफाकन". कभी- कभी होता यूँ है जीवन में कि आप किसी से मिलते हैं और आपको लगता है कि ये मिलना तो बस इत्तिफाकन हुआ।

क्या वाकई मुलाकातें इत्तिफाकन होती हैं? सिर्फ मुलाकातें ही क्यों, गौर करें तो दरअसल जीवन में कुछ भी इत्तिफाकन नहीं होता- सिर्फ हमें ऐसा भ्रम होता है, क्योंकि हम स्थिति को बहुत सतही तौर पर लेते हैं. हमें आदत ही नहीं रह गई है बात को गहराई से सोचने की।

तो सतही नज़रिए से इत्तिफाकन और गहरे नज़रिए से उस महाशक्ति के मास्टर प्लान के तहत हम अप्रैल के पहले सप्ताह में बाली में मिले. हम यानी मै और श्री श्री श्री रविशंकर जी- गुरूजी. आर्ट ऑफ़ लिविंग के ज़रिये शायद दुनिया में कम ही मुल्क होंगी जहाँ उनका नाम ना पहुंचा हो।

ना, मै आर्ट ऑफ़ लिविंग के कोर्स के लिए नहीं गई थी. ना, मैंने कभी सोचा भी नहीं था की मै गुरूजी से मिलूंगी, ना, मुलाक़ात से पहले तक मुझे इसके बारे में कतईपता नहीं था. हेमंत ने मुझे एक बार आर्ट ऑफ़ लिविंग का कुछ मैटर अनुवाद के लिए दिया था.२००८ के शुरुआत की बात है. तब अनुवाद के दौरान मुझे महसूस हुआ की हम निकट भविष्य में मिलने वाले हैं, पर कब और कहाँ ये मेरी बुद्धि नहीं पकड़ सकी।

गुरूजी जानते थे की उनका ये संदेश मैंने आधा, अधूरा ग्रहण किया है. हमें दरअसल शाम ५ बजे मिलने था लेकिन इसमें भी देर हुई. जब मैंने इस सबका ज़िक्र गुरूजी से किया तो बोले कि- "मै जानता हूँ. तुझे अगर सालों पहले पता होता है कि मिलने वाले हैं तो मुझे क्या घंटे भर पहले का भी भान नहीं होगा. मै कुछ कहती और बीच से ही गुरूजी टोक देते कि मै जानता हूँ. फिर उन्होंने कहा कि- आओ कुछ देर बातें करते हैं।

पूर्णिमा कि रात, होटल अयाना वालों ने गुरूजी के स्वागत के लिए जिस फ्रंजिपनी उपवन के पथ को ३६५ दीयों से सजाया था, उस पथ पर हम २० मिनिट साथ रहे. शब्द नहीं थे हमारे बीच ज्यादा लेकिन बातें काफी हुईं.२० मिनिटों में २० युग कि बात यदि आपको लगता है कि संभव है- तो हुई. गुरूजी कि स्निग्ध मुस्कान और कोमल स्वर - मुखर और मौन जो भी बातें हुई कम से कम मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं।

पिछले कुछ सालों से तमाम कोशिशों के बाबजूद कहीं न कहीं अंदरूनी तौर पर कमज़ोर हो रही थी, थक रही थी, शायद इसे लडखडाना भी कहा जा सकता है. इस बातचीत से इतना तो हुआ कि .........चलें यूँ समझें कि जैसे पैर में तकलीफ हो, चला नहीं जा रहा हो, चलना ज़रूरी भी हो,चलना अकेले भी हो तो ऐसे में कोई मज़बूत लाठी आपको थमा दे कि लो अब चलो।

फिलहाल बस इतना ही. २० युगों कि बात- भला ए़क पेज में अटेगी?

२० युग चाहिए लिखने को, २० युग चाहिए पढ़ने को- अब इतना वक्त ना आपके पास हाथ, ना मेरे पास.....सुनना ही है तो फिर क्यों न सीधे गुरूजी को ही सुना जाये?

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